मैं अकेला हूँ...
तनहा हूँ....
सावन के हसीन पल में भी
वो याद आ रहा है,
कभी जो मेरा अपना था|
रातों का तेरे संग जागना
और ख्यालो में भागना
आँखों की नीद भी छीनी थी
जीने का ख्वाब भी छीना था|
अब जिंदगी यूँ ढलती है,
जैसे मुट्ठी से रेत फिसलती
है|
दूर होते हुए भी साथ होकर,
ख्यालों में पास और पास
होकर
फिर तुम बदल गई अचानक
मेरी जिंदगी बदलकर|
आज भी तुम दिखती हो आँखों
में,
परछाई सी रहती हो सांसों
में|
बहुत अजीब जुर्म-ए-महब्बत
की सजा पाई है,
फागुन में ऐ ‘परी’ तू बहुत याद आई है|
तू बहुत याद आई है....
तू बहुत याद आई है....
मैं अकेला हूँ...
तनहा हूँ....
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